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।।टोपी।। —— कहानी

maharathi
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मैं वृन्दावन में निवास करने के उद्देश्य से फरवरी 2003 में आया था। वहाँ एक मैंडम से भेंट हुई। वे बहुत मधुर और सकारात्मक बोलती थी। साथ ही एक विदेशी मल्टी लेवल मार्केटिंग कम्पनी की डिस्ट्रीब्यूटर भी थीं। मैं हमेशा से मल्टी लेवल कम्पनियों का विरोधी रहा हूँ। इस बन्दे को मैम्बर बनाओ, उसे प्लान बताओ, किसी को सपने दिखाओ और किसी को टोपी पहनाओ। लेकिन धीरे धीरे में उनकी बातों में आ गया। आखिरकार मैंने भी टोपी पहन ली।
टोपी पहनने के बाद मुझे पता चला कि वास्तव में वह जो कुछ कहती या बोलती थीं वह तो कम्पनी की ट्रेनिंग में सिखाया जाता है। खैर जब मैंने टोपी पहन ली थी तो मेरी जिम्मेदारी थी कि मैं अब दूसरों को टोपी पहनाऊँ। मेरे आठ नौ हजार घुस चुके थे वो निकालने भी तो थे। कम्पनी की मीटिंगों में जाता, टिकट के पैसे खर्च करता, बात करने का लहजा सीखता, कपड़े पहनने का सलीका सीखता और भी ना जाने क्या क्या सीखता । मुख्य बात वही थी कि मुझे और लोगों को टोपी पहनानी थी। दो महीने तक टिकटों में, टेलीफोन में तथा भागदौड़ में पैसे खर्च करता रहा। लेकिन परिणाम क्या निकला? वही कुछ जो सब जानते हैं जेब से आठ नौ हजार और खर्च कर बैठा।
हमारे बुजुर्ग लोग हमें इसी मृग मारीचिका से बचते रहने के लिए कहते रहे हैं। पहले मैं आठ नौ हजार निकालने के लिए काम कर रहा था। अब वह बढ कर वह पंद्रह बीस हजार हो गया। कभी कभार कोई एक आध प्रोडक्ट बेच पाता था। प्रोडक्ट भी बहुत मंहगे थे। दांत माजने के लिए पेस्ट भी सौ सवा सौ रुपये का था। कारण वही उसमें कम्पनी की लागत मुनाफा, टैक्स आदि के साथ साथ हमारा, हमारे तथाकथित अपलाइन आदि का कमीशन भी तो शामिल था।
मैंने अपलाइन से बात की कि इतने प्रयास के बाद भी मैं किसी एक बन्दे को भी टोपी नहीं पहना पा रहा हूँ कारण क्या है? वे उत्तर क्या देते? उनका भी तो सवाल यही था कि नये मुल्लों को टोपी कैसे पहनाऐं। उन्होंने सलाह दी कि दिल्ली में एक सेमीनार हो रहा है। उसमें एक सरदार जी आ रहे हैं। वे अमेरिका में डाक्टर थे। इस बिजनेस में आ गये। डाक्टरी छोड़ दी है और घर बैठे करोड़ों रुपये बना रहे हैं। एक इंजीनियर थे उन्होंने इंजीनियरी छोड़ दी। एक बूट पालिश करने वाला भी आ रहा है उसने बूट पालिश करते करते लोगों को बिजनिस प्लान दिखाया और आज वह डायमण्ड है। वे सब बताऐंगे कि किस तरीके से उन्होंने अपने बिजनेस को बढाया और अब करोड़ों बना रहे हैं। टिकट के छह सौ रुपये दे कर अपना टिकट लिया। तब पता चला कि सब के पास एक टारगेट था कि किसे कितने टिकट बेचने हैं। मुझे भी टारगेट मिला था कम से कम तीन टिकट बेचने हैं। मैंने कहा कि मैं टिकट नहीं बेच पाऊँगा। अरे इस बिजनेस में ना शब्द का उपयोग करने वाले सफल नहीं होते। इसलिए तुम भी असफल हो रहे हो। जो मैंने तुमसे कहा है यही तुम और लोगों से कहो। तीन टिकट तो आराम से बिक जाऐंगी। चाहिए तो और ले लेना।
कुल मिलाकर कहना यह कि अब तक मैं जिस पंद्रह बीस हजार के लिए लड़ रहा था वह अब बढ कर पच्चीस तीस हजार हो गया था।
श्रीमती जी ने गांव में पिताजी के पास फोन कर दिया और सारा हाल बता दिया। पहले मैं कालेज से पाँच छह बजे तक घर आ जाता था लेकिन अब रात दस ग्यारह बजे आता हूं। फोन करो तो पता चलता है कि बिजनेस मीटिंग में हैं। घर में तो एक भी धेला आया नहीं है। पता नहीं कौन सा बिजनेस कर रहे हैं।
पिताश्री अगले ही दिन आ गये। लेकिन मेरे पास बिजनेस से अलग कोई बात ही न थी। अतः वे मेरे साथ कालेज गये। वहाँ बैठकर पिताश्री ने मुझे समझाया कि इस बिजनेस को छोड़। मैंने कहा कि इसमें मेरे पैसे लग गये हैं। वे बोले जो लग गये हैं। उन्हें भूल जा और जो आगे लगने वाले हैं उन्हें बचा। हर माह के आठ दस हजार रुपये जो घुस रहे हैं वे बचेंगे तो हम समझेंगे तेरा बिजनेस सही चल रहा है। जमीन पर चल। बिना पंख के आसमान मे मत उड़। हवाई किले बनाना बंद कर। घर में बच्चों की तरफ देख उनके दूध के पैसों को यूं टिकट, किराया आदि पर बरबाद मत कर। यदि सफलता मिलनी थी तो इतने दिनों एक आध प्रतिषत तो मिल चुकी होती।
मेरी समझ में आ गया था कि मैं तो एक मकड़ जाल में फंसा हुआ था। यह बिजनेस मेरे बस की बात नहीं है। हर काम हर कोई व्यक्ति नहीं कर सकता है। लोगों को टोपी पहनाना मेरे खून में नहीं है।
कुल मिला कर बात यह है कि मैंने वह बिजनेस जिसका में धुर विरोधी होने बावजूद भी घुस गया था, उसे छोड़ चुका हूं। अब मेरे पास समय भी होता है। इस समय का उपयोग कर कई छात्रोपयोगी एवं समाजोपयोगी किताबें लिख चुका हूँ। कहानी कविता भी चलता रहता है। जीवन आनंद से गुजर रहा है।
आज मैं इस कठोर सत्य पर पुनः पहुंच चुका हूं कि सपने देखना बुरी बात नहीं है लेकिन बुनियाद हीन तथ्यों को पिरोकर हवाई किले बनाना कदापि उचित नहीं है, व्यर्थ के सब्जबागों से निकल कर यर्थाथ को पहचाना आवश्य है। अन्यथा एक सफलता की कहानी के पीछे लाखों असफलता की कहानियां भी बनती हैं। जिन्हें न कोई सुनता है और न कोई सुनाता है।

(घटना, पात्र एवं स्थान आदि सभी काल्पनिक हैं, यदि कोई समानता पायी जाती है तो वह मात्र एक संयोग है। कृति का उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं है।)

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