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रेल यात्रा

maharathi
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डा. अवधेश किशोर शर्मा ‘महारथी’

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इरीट्रिया में एकमात्र कृषि कालेज है। वहाँ से पशु विज्ञान के विभिन्न विषयों में प्रोफेसर पद पर रिक्तियों की भर्ती हेतु विज्ञापन निकला था। मैंने और डा. घसीटा राम दोनों ने हैदराबाद स्थित एक कन्सल्टेंसी के माध्यम से अपने आवेदन प्रस्तुत कर दिये। डा. घसीटा राम को तो आप जानते ही हैं वे मेरे सम्मानित काल्पनिक पात्र हैं पढे लिखे और योग्य हैं। पीएच.डी. के दौरान मुझ से एक वर्ष सीनियर थे इसलिए मैं उनको भाई साहब कहता हूँ।
इण्टरव्यू के लिए बुलावा आ गया। हैदराबाद जाना था। चूंकि ये सब इतने आनन फानन में हुआ कि ट्रेन में आरक्षण पाने के लिए समय नहीं बचा था। हालांकि प्रयास किये गये थे लेकिन मैं वो हूँ जिसे कभी आरक्षण मिलता ही नहीं, चाहे वो रेल हो, नौकरी हो या फिर राजनीति। इस देश में मेरे जैसे लोगों की कोई औकात नहीं है। आप पढे लिखे हैं योग्य हैं बने रहिए इस देश के आकाओं को आप की जरूरत नहीं है। यहाँ तो चैक, जैक और बैक चाहिए योग्यता नहीं।
खैर, हमें इण्टरव्यू के लिए हैदराबाद जाना तो था ही। भाई साहब समय से वृन्दावन आ गये थे।?
‘‘अबे बात सुन भुने चने, भुनी मूँगफली और चिनौरी मँगवा ले आधी आधी किलो। कम से कम तीन चार दिन का मामला है’’-उन्होंने फरमान सुना दिया। ‘‘ये पकड़ दो सौ रुपये, दालें दो सौ रुपये के भाव पर पहुंच गयी हैं, चना, मूंगफली भी मंहगे हो गये होंगे, सौ रुपये से तो काम चलेगा नहीं।’’
मैं उनकी भाव वाली बात से तो सहमत था लेकिन रसद साथ लेकर चलने का समर्थक नहीं था। ‘‘क्या भाई साहब! आप भी! पेट का वजन पीठ से बाँध कर घूमेंगे? ट्रेन में खाना मिलता तो है।’’
‘‘अबे गुरूजी ने तुझे पीएच.डी. कराकर गलती तो नहीं कर दी। तुझे गणित बिलकुल नहीं आती।’’ पहले तो उन्होंने मुझे झिड़क दिया लेकिन अब वे मुझे समझाने लगे-‘‘देख! सुबह का नाश्ता चालीस रुपये, दोपहर का लंच नब्बे रुपये और रात का डिनर नब्बे रुपये कितना हुआ? दो सौ बीस एक दिन का तो चार दिन का कितना हुआ आठ सौ अस्सी। दो लोगों का कितना हुआ? मोटा मोटा दो हजार। अबे! अपना दो सौ का माल खत्म भी नहीं हो पायेगा।’’
मैं झुंझला रहा था। हालांकि उन्होंने पशु विज्ञान में पीएच.डी. की थी लेकिन वे उसके फंडामेंटल्स को मार्केटिंग में एप्लाई कर मुझे सदा ही निरुत्तर कर देते थे।
उनका रिजल्ट एण्ड डिस्कशन जारी था। ‘‘अबे! अब खाने की क्वालिटी देख। रेल के खाने की क्या क्वालिटी होती है अखबारों में नहीं पढा क्या? बासी खाना मिलता है, वैज और नोन-वेज एक साथ परोसा जाता है खाने में पोषक तत्वों की भारी कमी होती है। सोच तेरे पास कैसा भोजन होगा? शरीर को ऊर्जा चाहिए मतलब कार्बोहाड्रेट चिनौरी से मिलेगा। प्रोटीन चना और मूंगफली से मिल जाएगा। मूंगफली में आवश्यक फेट भी मिल जायेगा। तुझे मीठा ज्यादा पसंद है तो चिनौरी अधिक मिला ले, मीठा नहीं खाना चिनौरी मत मिला। सब कुछ तेरे हाथ में है जैसा चाहिए वैसा खा।’’ वे तथ्य और वैज्ञानिक आधार पर वर्णन कर रहे थे।
अब वे भोजन की उपलब्धता की चर्चा करने लग गये-‘‘देख! तुझे खाने के लिए स्टेशन आने का इंतजार नहीं करना। पता है? एपी एक्सप्रेस भोपाल से तीन बजे चल कर सीधे नागपुर रुकती है दस बजे मतलब आठ घण्टे बाद। नाश्ता करने का समय निकल जायेगा। तेरे पास रसद है जब चाहे, जैसा चाहे और जितना चाहे खा ले। बात खत्म।’’
अब वे एक और राज-पाश कर रहे थे-‘‘ये ठोस खाना है। और सूखा भोजन है। मतलब रखे रखे खराब नहीं होता। और सुन तुझे बार बार पैसे नहीं निकालने मतलब पैसे गिरने या जेब कटों के खतरे कम। फिर चलती गाड़ी में खुले पैसे कहाँ से लाएगा और घर से कितने खुले पैसे ले कर चलेगा? मतलब ये कि सभी समस्याओं का समाधान एक साथ मिल जायेगा।’’
मैंने हथियार डाल दिये-‘‘भाई साहब आप की बात मान ली। मैं भुनी मूंगफली, चना और चिनौरी मंगा लूंगा।’’
‘‘तभी मान जाता तो इतनी बात क्यों होती।’’ उन्होंने फिर झाड़ दिया।
खैर, हम मथुरा रेलवे स्टेशन की ओर समय से कूच कर गये। शाम को सात की जगह आठ बजे आंध्र प्रदेश एक्सप्रेस स्टेशन पर लगी। हम दोनों ट्रेन में आगे की ओर के एकमात्र साधारण श्रेणी के डिब्बे में चढ गये। किसी तरह दो घण्टे की यात्रा के बाद ग्वालियर में जा कर हमें बैठने के लिए जगह मिल पायी।
भाई साहब ने रसद निकाली और डिनर करने लगे। मैंने भी थोड़ा सा ले लिया। बाद में मैंने अपने लिए रेल वैण्डर से डिनर लिया और खा कर इत्मीनान से पिचक पिचक कर बैठ गये। सोने का तो मतलब ही नहीं था क्योंकि भीड़ बहुत अधिक थी।
भाई साहब ने सुबह का नाश्ता और दोपहर का लंच इसी रसद से किया। मैंने रेल का नाश्ता और लंच लिया। सच पूछो तो, लंच कम था और उससे मेरा पेट नहीं भर पाया था, लेकिन मैं भाई साहब के सामने इस राज को खोल नही पा रहा था।
भारतीय रेल की विशेषता है कि वह कभी समय से नहीं चलती है। हमेषा लेट हो जाती है। बेशक यह ट्रेन वी.आई.पी ट्रेन थी। यात्रा करने के लिए छह सौ किलोमीटर का रैस्ट्रिक्शन था। स्टोपेज दूर दूर और लम्बे समय के बाद आते थे लेकिन थी तो भारतीय रेल। करीब डेढ़ घण्टे की देरी से रात दस बजे हम सिकन्दराबाद पहुंच पाये, और एक होटल में रात गुजारने की व्यवस्था की।
अब मेरी हालत खराब हो रही थी। मेरे पेट में तेज जलन हो रही थी और तेज उल्टियां आ रही थीं। आखिरकार मुझे भाई साहब को बताना ही पड़ा। रात में डाक्टर नहीं मिला सो एक मेडिकल स्टोर से परेशानी बता कर दवा ले ली। करीब एक घण्टे बाद रिलैक्स भी मिला। भाई साहब कह रहे थे-‘‘मना की थी रेल का खाना मत खा, नहीं माना, अपनी नींद खराब की और मेरी भी। अबे तू यहाँ दवा खाने आया था या इण्टरव्यू देने। चल अब सो और मुझे भी सोने दे।’’
मैं मन ही मन भाई साहब की सोच को प्रणाम कर रहा था। मैं सोच रहा था कि देखिए रेल का ग्राहक कितना मजबूर होता है उसे जैसा मिले वैसा लेना पड़ता है और वह भी भारी कीमत अदा करने पर। जब तक वह क्वालिटी की शिकायत करने की स्थिति में आता है गाड़ी अगले स्टेशन पर पहुंच जाती है। किस की शिकायत करे और किन से करे। शिकायत करने जायेगा तब तक गाड़ी चली जायेगी। वास्तव में रेल का ग्राहक तो एक भेड़ है जो हर स्टेशन पर मुंड़ेगी और बदले में उसे मार ही मिलेगी। सोचते सोचते नींद आ गयी पता नहीं कब सुबह हो गयी।
खैर समय से इण्टरव्यू के लिए गये और लौटकर रात ग्यारह बजे की दक्षिण एक्सप्रेस से मथुरा के लिए रवाना हुए। रास्ते में मैंने भाई साहब की रसद से ही नाश्ता, लंच और डिनर किया। इस गाड़ी ने भी भारतीय रेल की लेट होने की परम्परा को निभाया और लगभग डेढ़ घण्टे की देरी से अगली सुबह लगभग तीन बजे मथुरा जा कर लग पायी।
चार बजे के लगभग हम वृन्दावन में अपने घर पहुंच पाये। अब मेरा पेट भी ठीक था और सेहत भी अच्छी थी। कोई समस्या नहीं थी। केवल भारी थकान हो रही थी। मैं यह मानने के लिए मजबूर हो चुका था कि वास्तव में भाई साहब का कन्सैप्ट एकदम क्लीयर था। उन्होंने क्वालिटी का भोजन किया और बेहद कम दामों में। आज फिर वे मुझे एक और पाठ सिखा गये।
सुबह हम सब पूरे परिवार के साथ बची रसद को नाश्ते में स्वाद से उड़ा रहे थे और स्वाद की तारीफ कर रहे थे।
(कथा में सभी पात्र स्थान एवं घटनाक्रम काल्पनिक हैं यदि कोई समानता पायी जाती है तो यह महज एक संयोग होगा। कथाकार का किसी को ठेस पहुंचाने का कोई उद्देश्य नहीं है।)

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