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बेटी की पाती
बेटी बनाके भेजा, पढ लीजिए ये पाती।
पढते ही लौट आना, अब जिन्दगी सताती।।मुखड़ा।।
अब भू्रण में ही मेरा, वध कंस कर रहे हैं,
बेशर्म इस जगत का, विध्वंस कर रहे हैं।
मैं निरीह लड़ न पाती, जिन्दा न भू पे आती।
बेटी बनाके भेजा, पढ लीजिए ये पाती।।1।।
माँ बाप बालपन में, करवा रहे मजूरी,
हर बात मानूँ उनकी, मेरे लिए जरूरी।
माँ पूतना भी मुझको, शिक्षा नहीं दिलाती।
बेटी बनाके भेजा, पढ लीजिए ये पाती।।2।।
नित झेलती हूँ हिंसा, स्कूल और घर में,
बचपन निकल रहा है, कम्पटीशनों के डर में।
क्यों बालकों की भांती, माँ ना मुझे खिलाती।
बेटी बनाके भेजा, पढ लीजिए ये पाती।।3।।
नित भेदभाव होता, भैया से पीछे रहती,
जाना पराये घर सो, अन्याय खूब सहती।
नादान आयु मेरी, खुद को ही समझाती।
बेटी बनाके भेजा, पढ लीजिए ये पाती।।4।।
अब बाल वैश्या का, चलने लगा है धंधा,
कितना समाज गंदा, कितना समाज अंधा।।
ये श्वेत पोश रौंदें, ले मैं जन्म पछताती।
बेटी बनाके भेजा, पढ लीजिए ये पाती।।5।।
दोषी तुम्हीं कन्हैया परसों न लौट पाये,
मझिधार छोड़ भागे, महारथी हुए पराये।
बस एक कंस मारा मर पाये ना संगाती।
बेटी बनाके भेजा, पढ लीजिए ये पाती।।6।।
बेटी बनाके भेजा, पढ लीजिए ये पाती।
पढते ही लौट आना, अब जिन्दगी सताती।।
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